एक पेड़ हुआ करता था यहा पर
डाली डाली क़िस्सा था,
हर पत्ता किरदार था
सर्द गरम या हो बारिश
हर चर्चा मज़ेदार था
कभी डाली रोती पत्तो के आँसू
और यूँ पतझड़ आ जाता था
हर टहनी जब खिल कर हस्ती
मानो बसंत छा जाता था
देखे उसने कई ज़माने
हर दशक का दर्शक था
माटी ईंट और पत्थर
अब सिमेंट का जंगल था
जिसको दी थी उसने छाया
आज वो इसका भक्षक था
अब रहा ना वो पेड़ यहा पर
अब तो वो सिर्फ़ लकड़ा था
जिस पर बैठा इंसान हैं
उस कुर्सी का हिस्सा था
एक पेड़ हुआ करता था यहा पर
डाली डाली क़िस्सा था...